दत्तोपंत ठेंगड़ी : जिन्होंने कण कण में राष्ट्रवाद की हुंकार भरी, जिन्हें कहा जाता है आधुनिक चाणक्य ; उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए जानते हैं उनके बारे में..!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी द्वारा लगाया गया पौधा (भारतीय मजदूर संघ) आज विशाल वटवृक्ष बन चुका है। दुनिया के सबसे बड़े इस श्रमिक संगठन के साथ लगभग 5,000 मजदूर संघ जुड़े हैं और इसके सदस्यों की संख्या लगभग ढाई करोड़ है। उनसे एक बार जो जुड़ा तो फिर उन्हीं का होकर रह गया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी की पू. माताजी जानकीबाई ठेंगड़ी जी का पुण्य स्मरण हो रहा है। उन्हें मुमुक्षु कहा गया है। उनकी माताजी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। ऐसा कहा जाता है कि जब वे ध्यान में बैठती थीं तो उन्हें भूत-भविष्य के दर्शन होते थे। भगवान दत्तात्रेय उनके आराध्य थे। उनकी अनुकम्पा से उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, ऐसी उनकी मान्यता थी। अत: बालक को अपने आराध्य के चरणों में अर्पित करते हुए उन्होंने नवजात शिशु का नाम दत्तात्रेय रखा। यही दत्तात्रेय बड़े होकर दत्तात्रेय बापूराव ठेंगड़ी उपाख्य दत्तोपंत ठेंगड़ी नाम से विख्यात हुए। माता जानकीबाई आध्यात्मिक विभूति तो थीं, साथ ही परम राष्ट्रभक्त भी थीं। जब दत्तोपंत जी पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी उन्हें उनकी माताजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। बी.ए., एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात् दत्तोपंत जी संघ के प्रचारक बने। इसके पीछे भी उनकी माताजी का ही योगदान रहा। ठेंगड़ी जी प्रचारक बनें, यह बात उनके पिताजी श्री बापूराव ठेंगड़ी को पसंद नहीं थी। बाद में उनकी माताजी ने तर्कसंगत लंबे संवाद के उपरान्त बापूराव जी को भी सहमत किया। इस प्रकार 22 मार्च, 1942 के दिन संघ तथा राष्ट्र को दत्तोपंत जी के रूप में एक महान प्रचारक मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और भारत माता, माता जानकीबाई आध्यात्मिक विभूति, मार्क्सवादी हिरेन मुखर्जी व श्रमिक नेता के रूप में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी, अभाविप के निर्माण में योगदान, ‘चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो।’, पश्चिमी दार्शनिकों यथा अरिस्टोटल, प्लेटो, स्पेन्सर , राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन का गठन , ‘भारतीय मजदूर संघ’ नाम से नए अखिल भारतीय श्रमिक संगठन, अखंड साधक जैसा जानकीबाई जी का जीवन वन्दनीय है, प्रकाशपुंज है। इतिहास में जीजाबाई समान अतुलनीय मातृशक्ति का गौरवशाली परिचय मिलता है, जिन्होंने अपनी सन्तान को दिव्य गुणों से युक्त किया। माता जानकीबाई ने अपने ज्येष्ठ पुत्र (दत्तोपंत) को शिक्षित-दीक्षित करके प.पू. श्री गुरुजी को सौंप दिया। श्रीगुरुजी ने उन्हें संस्कारित करके संघ प्रचारक के रूप में राष्ट्र नवोत्थान के महान कार्य के साथ जोड़ दिया। अखंड राष्ट्र आराधक और दृढ़व्रती कर्मयोगी बना दिया। जानकीबाई जी की मूक साधना और राष्ट्र भावना के अन्तर्गत सर्वश्रेष्ठ त्याग का मूल्यांकन इतिहास अवश्य करेगा, जहां उनका विशिष्ट स्थान निश्चित है।

 

अभाविप के निर्माण में योगदान

 

संघ प्रचारक के नाते दत्तोपंत जी ने केरल, बंगाल, असम में प्रान्त प्रचारक का दायित्व लेकर संगठन कार्य किया। 1949 में उन्हें वापस नागपुर बुला लिया गया, जहां नियति और श्रीगुरुजी ने भविष्य में उनके लिए कदाचित् कोई बड़ी भूमिका सोच रखी थी। 9 जुलाई, 1949 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के निर्माण में दत्तोपंत जी का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्हें विद्यार्थी परिषद् में विदर्भ प्रांत के अध्यक्ष का दायित्व दिया गया। इसी के साथ मजदूर क्षेत्र में मजदूर संगठनों की कार्यपद्धति, संरचनादि के अध्ययन हेतु संघ योजना से इंटक में भेजा गया। उन्होंने इंटक (म.प्र.) के संगठन मंत्री के नाते 1950-51 तक कार्य किया। वे 1952-53 तक भारतीय जनसंघ, मध्य प्रदेश के संगठन मंत्री रहे। इस प्रकार और भी अन्य अनेक सामाजिक संगठनों में कार्य किया। 50-60 के दशक में वामपंथ का मजदूर क्षेत्र में वर्चस्व था। ‘लालकिले पर लाल निशान’ के संकल्प के साथ वामपंथ बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था। यह राष्ट्रवादी संगठनों के लिए चिंता का विषय था। नागपुर संघ कार्यालय पर संपन्न हुई एक बैठक में यह निश्चित हुआ कि मजदूर क्षेत्र में राष्ट्रहित-मजदूरहित को देखते हुए राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन का गठन किया जाए। उस बैठक में उपस्थित पं. दीनदयाल उपाध्याय के सुझाव पर सर्वसम्मति से नए संगठन निर्माण की जिम्मेदारी दत्तोपत ठेंगड़ी जी को सौंप दी गई। इसके बाद 23 जुलाई, 1955 को भोपाल में दत्तोपंत जी ने ‘भारतीय मजदूर संघ’ नाम से नए अखिल भारतीय श्रमिक संगठन के निर्माण की घोषणा की। घोषणा के समय संगठन के पास कार्यालय, कार्यकर्ता, कोष, सदस्यता आदि कुछ भी नहीं था। अर्थात् यह शुद्ध रूप में शून्य से सृष्टि निर्माण की घोषणा थी। इस निर्माण की घोषणा के साथ भारत के मजदूर क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात हुआ।

 

सबसे बड़ा मजदूर संगठन

 

शून्य से संगठन यात्रा प्रारंभ करने वाले भारतीय मजदूर संघ के साथ आज ढाई करोड़ से अधिक सदस्य, सभी उद्योग विभागों व कामगार क्षेत्रों में 5,000 से अधिक श्रमिक संगठन तथा लाखों कार्यकर्ता सक्रिय हैं। भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त भारतीय मजदूर संघ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संबंधी समस्त समितियों, परिषदों व आयोगों का सदस्य है। भारतीय मजदूर संघ इस समय भारत ही नहीं, विश्व का सबसे बड़ा स्वायत्त स्वतंत्र श्रमिक संगठन है।

संगठन के संस्थापक दत्तोपंत जी ने इसकी स्थापना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए ‘इदं राष्ट्राय, इदं न मम्’ लेख में लिखा है, ‘‘भारतीय मजदूर संघ सर्वकल्प राष्ट्र निर्माण का एक अंग है और राष्ट्रहित की चौखट के भीतर मजदूर हित की कल्पना साकार करना उसका उदेश्य है। यह मजदूरों का, मजदूरों द्वारा, मजदूर के लिए चलने वाला संगठन है, जो सभी प्रकार के प्रभावों यथा सरकार का प्रभाव, नियोजकों का प्रभाव, राजनीतिक दलों का प्रभाव, विदेशी विचारधारा का प्रभाव और व्यक्तिगत नेतागिरी के प्रभाव से ऊपर उठ कर कार्य करेगा। राष्ट्रहित, उद्योगहित व मजदूरहित की त्रिसूत्री इसके विचार चिन्तन की धुरी होगी।’’ एक दीप जलने से जैसे अंधेरा स्वयंमेव छंट जाता है। दीप को और कुछ करना नहीं पड़ता। इसी प्रकार एक प्रखर राष्ट्रवादी संगठन के मजदूर क्षेत्र में पदार्पण से अराष्ट्रीय तत्व छंटने लगे।

उक्त विषय में उन्होंने आगे कहा, ‘‘उन दिनों एक बड़ी समस्या थी कि राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और भारत माता, इन शब्दों के प्रति तथाकथित प्रगतिशील लोगों के मन में बड़ी चिढ़ थी। हम भारत माता की जय कहते तो प्रगतिशील नेता कहते इस नारे का यहां ट्रेड यूनियन क्षेत्र में क्या प्रयोजन है? यहां तो बोनस, महंगाई भत्ता, वेतन वृद्धि आदि का सवाल है। भारत माता को यहां क्यों घसीट लाते हो। नारे भी अलग लगते थे। उनका नारा था ‘चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो।’ उस नारे के स्थान पर हमने कहा ‘‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम।’’ यानी राष्ट्रवाद को प्रखरता से लाना और राष्ट्रहित की चौखट में रहकर मजदूरों का हित करना, यह हमारा ध्येय है। हमारी प्राथमिकता का क्रम है कि पहले राष्ट्रहित, फिर मजदूरहित और अंत में भारतीय मजदूर संघ का हित। इसमें कोई संस्थागत अहंकार नहीं। राष्ट्र का कल्याण हो, मजदूरों का कल्याण हो, यह हमारा सिद्धान्त और लक्ष्य है।’’

 

साम्यवाद के पराभव की घोषणा

 

जिस समय दत्तोपंत जी उक्त संगठन के सिद्धान्तों की व्याख्या कर रहे थे वह कालखंड भारत और विश्व में वामपंथी विचार प्रभाव का था। दत्तोपंत जी ने उक्त विचार को सिरे से नकार दिया और कानपुर अधिवेशन (1970) में उन्होंने 1990 तक साम्यवाद के पराभव की घोषणा की। उन्होंने कहा कि साम्यवाद अपनी अन्तर्निहित विसंगतियों व असत्य आधारित होने के कारण स्वयंमेव टूट कर बिखरने वाला है। उन्होंने 2010 तक पूंजीवाद के समापन का भी संकेत किया और यह भी कहा कि 2015 के पश्चात् भारत में भारतीय मजदूर संघ के अतिरिक्त अन्य समस्त श्रमिक संगठन अति दुर्बल अथवा विलुप्त हो जाएंगे। मजदूर क्षेत्र में आज यही स्थिति स्पष्ट दिखाई दे रही है। डॉ. हेडगेवार जन्मशताब्दी (1989) के अवसर पर नागपुर के रेशिमबाग में डॉक्टर जी की मूर्ति के सम्मुख संघ प्रचारकों के एकत्रीकरण को संबोधित करते हुए दत्तोपंत जी ने कहा था, ‘हिन्दू राष्ट्र की इस छोटी सी प्रतिकृति के समक्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं और परिदृश्य के आधार तथा वास्तविकता की ठोस धरती पर खड़े होकर मैं यह कह रहा हूं कि अगली शताब्दी अर्थात् एक जनवरी, 2001 का सूर्योदय जब होगा तो सूर्य नारायण को यह देख कर प्रसन्नता होगी कि बीसवीं शताब्दी की समाप्ति के पूर्व ही हिन्दुस्थान के आर्थिक क्षेत्र में गुलाबी लाल रंग से लेकर गहरे लाल रंग के सभी झण्डे हिन्दू राष्ट्र के सनातन भगवा ध्वज में आत्मसात और विलीन हो चुके होंगे।’’

अंतरराष्ट्रीय विचार मंच, जहां पश्चिमी मान्यताओं के अनुरूप विमर्श गढ़े जाते थे और वैश्विक अर्थ नीति को दिशा दी जाती थी वहां साम्यवादी पूंजीवादी श्रम संघों के नि:स्तेज हो चुके आभामंडल के कारण सन्नाटा पसरा हुआ है। उन्हें अब भारत में प्रकाश की किरण दिखाई दे रही है।

दत्तोपंत जी ने कहा था हम अपनी संगठन शक्ति बढ़ाते जाएं वैश्विक श्रम संघ एक दिन स्वत: भारतीय मजदूर संघ के साथ आएंगे। वह दिन आ गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में तो भारतीय मजदूर संघ पहले से ही भारत के श्रमिकों का नेतृत्व कर रहा है। अब अंतरराष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (आईटीयूसी) के मंच से भी भारतीय मजदूर संघ वैश्विक श्रमिक बिरादरी को भारतीय अर्थ चिंतन व विचार दर्शन का सन्देश दे सकेगा। वैश्विक श्रम आन्दोलन वस्तुत: वर्तमान में थम सा गया है और दोराहे पर खड़ा है। उसके सम्मुख दो ही विकल्प हैं- एक, उसे भटकाव-बिखराव के मार्ग पर ले जाएगा, तो दूसरा भारत के ‘थर्ड वे’ अर्थात् सत्य सिद्धान्त के मानववादी कल्याणकारी मार्ग पर ले आएगा। अपने गन्तव्य के लिए वह किस मार्ग का चुनाव करता है, यह आगामी थोड़े ही समय में स्पष्ट हो जाएगा।

 

आधुनिक चाणक्य

भारतीय मजदूर संघ का अनेकानेक झंझावातों व विषय स्थितियों से जूझते हुए जिस द्रुतगति से विकास हुआ है उस कार्यपद्धति और अधिष्ठान संबंधित भारत ही नहीं, विदेशों में भी शोध कार्य हो रहे हैं। दत्तोपंत जी के व्यक्तित्व, कर्तृत्व संबंधित साहित्य को खंगाला, तलाशा जा रहा है। उनकी संगठन कुशलता, कार्यकर्ता निर्माण की अद्भुत, अर्थ-चिंतन का मर्म तथा शोषणमुक्त न्यायमुक्त समाज रचना की अवधरणा को समझने का श्रम जगत प्रयास कर रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने दत्तोपंत जी को अलौकिक प्रतिभावान महापुरुष, तो पू. स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने आधुनिक चाणक्य कहा है। प्रख्यात विचारक एस. गुरुमूर्ति का कहना है कि दत्तोपंत जी ने लगातार 25 घंटे और वर्ष में 13 महीने काम करते हुए उस कार्य को एक ही जन्म में सम्पन्न कर दिया जिसे दस जन्मों में पूरा किया जा सकता था। भारत में साम्यवादी विचारधारा को निष्प्रभावी करने का जिन्हें श्रेय दिया जाता है उन दत्तोपंत जी के समस्त सामाजिक विचारकों, नेताओं से स्नेहपूर्ण और मित्रता के संबंध थे। विरोधी भी उनके प्रशंसक थे। राष्ट्रीय महत्व के अनेक कार्यों एवं प्रकल्पों से वे जुड़े हुए थे। भण्डारा उपचुनाव (1954) में दत्तोपंत जी ने बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के सचिव के रूप में उनके चुनाव का कार्यभार संभाला था। आपातकाल (1975-76) में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने नानाजी देशमुख व रवीन्द्र वर्मा की गिरफ्तारी के उपरान्त दत्तोपंत जी को लोकसंघर्ष समिति का सचिव नियुक्त किया था। दत्तोपंत जी ने भारतीय मजदूर संघ के महामंत्री का दायित्व बड़े भाई (स्व. रामनरेश सिंह) को सौंपकर भूमिगत रहकर निर्भीकतापूर्वक देशव्यापी जनजागरण और लोकतंत्र की पुनस्स्थापना में ऐतिहासिक कार्य किया। 1968 में एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल रूस प्रवास पर गया था। इस प्रतिनिधिमंडल में वरिष्ठ मार्क्सवादी हिरेन मुखर्जी व श्रमिक नेता के रूप में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी सम्मिलित थे। प्रवास में हिरेन मुखर्जी दत्तोपंत जी के निकट संपर्क में आए और उनके विचार व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए। रूस से विदाई के समय हिरेन मुखर्जी ने दत्तोपंत जी से कहा, ‘‘ब्रह्माण्ड में तुम्हारा स्थान निश्चित हो गया है, मेरा अभी नहीं हुआ।’’ कदाचित् कामरेड हिरेन मुखर्जी में साम्यवाद के बारे भ्रम निवारण और निराशा की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी। पश्चिमी दार्शनिकों यथा अरिस्टोटल, प्लेटो, स्पेन्सर आदि ने दार्शनिक विचार तो संसार को दिए किन्तु वे कोई जन संगठन अथवा जन आन्दोलन खड़ा नहीं कर सके। यहां तक कि कार्ल मार्क्स ने एक जड़वादी तत्व ज्ञान तो दिया किन्तु संगठन निर्माण में असफल रहे। दूसरी ओर दत्तोपंत जी ने भारतीय शाश्वत तत्वज्ञान व अर्थ चिंतन दिया। इसके साथ ही एक दर्जन के लगभग जन संगठनों का निर्माण व जन आन्दोलनों का सफल नेतृत्व भी किया। वे बारह वर्ष (1966-78) तक सांसद रहे। पचास से अधिक ग्रंथों के रचयिता, हजारों निबंधों, लेखों के लेखक, तीस से अधिक देशों की यात्रा कर चुके दत्तोपंत जी आज भी प्रेरक बने हुए हैं। संघ के आत्मविलोपी संस्कार व स्वभाव के अनुसार दत्तोपंत जी ने लिखा है ‘‘आत्मविकास करना और अपने श्रेष्ठ गुणों का फल राष्ट्रदेवता के श्रीचरणों में अर्पित करके इस धरती से शान्तिपूर्वक निकल जाना, यह आदर्श स्थिति है। अपने महान राष्ट्र की आधारशिला का एक लघु पाषाणकण बन कर नींव में गढ़े रहना ही मैं पसन्द करूंगा।’’ लाखों कार्यकर्ताओं, करोड़ों स्वयंसेवकों की भी यही मनोभूमिका है।

आलेख सूत्र – पाञ्चजन्य

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