
असम पूर्वोत्तर भारत का एक बेहद ही खूबसूरत और प्रकृति से जुड़ा प्रदेश है। यह अपनी प्रसिद्ध चाय की खेती, बिहू उत्सव तथा अनेक सांस्कृतिक और लोक कलाओं के लिए जाना जाता है। लेकिन अपनी खूबियों के साथ-साथ यह प्रदेश कई रूढ़िवादी विचारधाराओं और मानसिकताओं से भी पीड़ित रहा है। मुख्य रूप से यहाँ असमिया, बोडो और बंगाली भाषाएँ बोली जाती हैं। वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार असम की कुल आबादी का लगभग 12.5 प्रतिशत हिस्सा हिंदी भाषा का प्रयोग करता है। ये हिंदीभाषी लोग मुख्यतः प्रवासी मजदूर, व्यापारी और अन्य कामगार हैं, जो उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान से रोज़गार की तलाश में असम आए थे।
असम में कुल मिलाकर लगभग 40 प्रचलित भाषाएँ बोली जाती हैं। ऐसे में प्रवासियों के सहयोग, हिंदी के विद्वानों, फिल्मों, रेडियो और समाचार माध्यमों ने हिंदी को यहाँ एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। इसके परिणामस्वरूप कई हिंदी पत्रिकाएँ और समाचार पत्र भी प्रकाशित होने लगे, जिनमें प्रमुख रूप से ‘पूर्वांचल प्रहरी’ का नाम लिया जा सकता है।
परंतु, प्राकृतिक आपदाओं और सामाजिक तनावों से ग्रस्त इस क्षेत्र में कुछ भी सामान्य रूप से संचालित नहीं होता। धीरे-धीरे हिंदी का बढ़ता प्रभाव कई बुद्धिजीवियों और स्थानीय संगठनों को अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति खतरा प्रतीत होने लगा। परिणामस्वरूप एक वर्ग द्वारा समाज में आपसी सौहार्द भंग हुआ और हिंदीभाषियों के साथ अनेक प्रकार की यातनाएँ हुईं। 1979 से 1985 के बीच हुए असम आंदोलन के दौरान नागांव, डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया में हिंदीभाषियों की निर्मम हत्याएँ की गईं।
2003 के बिहार–असम हिंसक संघर्ष में लगभग 160–200 हिंदीभाषियों की हत्या कर दी गई।
2007 में ULFA (United Liberation Front of Asom) द्वारा किए गए हमलों में कम से कम 15 हिंदीभाषियों की मृत्यु हुई। आए दिन विभिन्न छात्र संगठनों द्वारा “जाती, माटी, भेटि” जैसे नारे लगाए जाते रहे हैं, जो हिंदीभाषियों के विरुद्ध माहौल को और तनावपूर्ण बनाते हैं।
फिर भी इस तनावपूर्ण वातावरण में भी हिंदी ने अपनी अस्मिता को बनाए रखा है। इसकी सफलता का श्रेय उन सभी लोगों को जाता है, जो हिंदी भाषा के प्रति निरंतर कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित रहे हैं।
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