
आरएसएस सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा, आगामी 12 जनवरी, 2025 को दुनिया भर में स्वामी विवेकानंद की 162वीं जयंती मनाई जाएगी. इस अवसर पर हमें इस राष्ट्रभक्त का एक सुंदर कथन याद आता है. उन्होंने कहा था- “प्रत्येक राष्ट्र की एक नियति होती है, प्रत्येक राष्ट्र का एक संदेश होता है, प्रत्येक राष्ट्र का एक लक्ष्य होता है।” तो फिर आज के वैश्विक-दृष्टिकोण में भारत की भूमिका क्या है?
“हम अनादि काल से एक-दूसरे के साथ सौहार्दपूर्ण तरीके से रह रहे हैं. अगर दुनिया को इस तरह रहना है तो भारत को भी सद्भाव का वैसे ही मॉडल बना कर रखना होगा.” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने 19 दिसंबर, 2024 को पुणे में सहजीवन व्याख्यानमाला के 23वें समारोह में यह संदेश दिया. वे ‘भारत-विश्वगुरु’ विषय पर संबोधित कर रहे थे. यहां उन्होंने हिंदू राष्ट्र की पहचान के रूप में समावेशी समाज को रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि दुनिया को यह दिखाने की जरूरत है कि भारत एक ऐसा देश भी है जो सद्भाव से रह सकता है. उन्होंने विश्वगुरु भारत बनने की सामूहिक आकांक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चुनौतियों और संभावित समाधानों को व्यापक रूप से रेखांकित किया। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के मूलभूत सिद्धांतों की व्याख्या करने के अलावा उन्होंने विश्वगुरु बनने की पूर्व निर्धारित शर्तों के बारे में भी बताया. उन्होंने अपने संबोधन की शुरुआत इस सवाल से किया- “क्या दुनिया को वाकई किसी विश्वगुरु की जरूरत है? आज दुनिया जिस स्थिति में है, क्या उसमें ऐसी कोई जरूरत है?” उन्होंने कहा कि आज हम हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं. अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे का विकास हो रहा है. दुनिया तकनीकी रूप से तेजी से बदल रही है. ऐसे में किसी को भी लग सकता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? इसके आगे उन्होंने कहा कि इसके उलट आज लोगों की सेहत, पर्यावरण नुकसान और वैश्विक विवादों को देखें तो इसका जवाब है- नहीं.
पश्चिम का विश्वास सबसे ताकतवर होने में
डॉ. मोहन भागवत ने अपने संबोधन में पिछले दो हजार सालों में इंसानी सभ्यता के विकास का भी जिक्र किया और इसका अधिक गहराई से मूल्यांकन प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा कि पश्चिम केवल सबसे ताकतवर होने में विश्वास करता है. वहां लोग सोचते हैं- तुम अपनी देखो, मैं केवल अपने बारे में सोच सकता हूं. वहां हर किसी को अपना, अपनी जरूरत का ध्यान रहता है. प्रकृति या पर्यावरण के बारे में सोचना मेरा काम नहीं है. अगर मैंने अपने जीवन के लिए प्रकृति को नष्ट भी किया तो यह मेरे लिए उचित होगा, क्योंकि मुझे जीना है। विकास की इस प्रक्रिया में समाज प्रकृति का दोहन करके ऊंचाई पर पहुंच गया है. खुद के उपभोग के लिए अधिकतम प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर दिया है. इन्होंने यही माना कि ये प्रकृति का नियम है और इसी तरह काम किया जाता है. पिछले 2000 सालों में हमारे जीने का तरीका इसी तरह से विकसित हुआ है. लेकिन इन्हीं वजहों से आज आर्थिक उथल-पुथल और जलवायु परिवर्तन से संबंधित कई चुनौतियां सामने आ गई हैं.
भारत की सोच पश्चिम से बिल्कुल अलग
इसके बाद उन्होंने कहा कि लेकिन भारत अपने सांस्कृतिक संदर्भ और राष्ट्रीय लोकाचार की परंपरा के मुताबिक इससे अलग सोचता है. पश्चिमी मॉडल ने मोक्ष के साथ-साथ अर्थ और काम के बारे में भी सोचा है, लेकिन धर्म के आयाम को नजरअंदाज कर दिया. उन्होंने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं पर विचार किया लेकिन आध्यात्मिक तत्व मसलन आत्मा पश्चिमी विचार में गायब है. इसलिए भारत को एक उम्मीद के रूप में देखा जाता है और यह दुनिया के लिए एक मार्गदर्शक शक्ति हो सकता है.
समाधान पर चर्चा करते हुए उन्होंने जोर दिया कि हम सभी को यह समझना चाहिए कि हम क्या हैं और कौन हैं. हमारा राष्ट्र राजनीतिक प्रक्रिया का प्रोडक्ट नहीं है, बल्कि साझी संस्कृति और धर्म के विचार पर आधारित है. संपूर्ण विविधता अंतर्निहित एकता की अभिव्यक्ति है. जो जिस रूप में चाहे भगवान को पूज सकते हैं, यही हमारी मान्यता रही है. हम कौन हैं और हमारी पहचान क्या है, इस पर कभी विवाद नहीं हो सकता. हमने हमेशा सबको अपना ही माना. सभ्यतागत अवधारणा के रूप में यही भारतीय राष्ट्रवाद स्पष्ट रूप से विश्वगुरु का दर्जा प्राप्त करने का पहला आयाम है. पश्चिमी मॉडल की नकल हमारी क्षमता के विकास में सबसे बड़ी बाधा है. इसलिए हमारी राष्ट्रीय पहचान आम सहमति की होनी चाहिए, लड़ाई-झगड़े की नहीं.
जबरन धर्मांतरण, दूसरों की पूजा पद्धति पर प्रहार गलत
दूसरे, सहिष्णुता और स्वीकृति के मुद्दे पर उनका कहना था कि “केवल वही सही है जो हमने सोचा’ यह सामाजिक व्यवहार के अनुकूल नहीं है. इसलिए जबरन धर्मांतरण और दूसरों की पूजा पद्धति पर प्रहार करना हमारी राष्ट्रीय जीवन पद्धति के खिलाफ है. हम सबको भारत की विभिन्न विचारधाराओं को स्वीकार करना चाहिए. हालांकि दूसरे संप्रदायों या धर्मों का अनुसरण भारत के लिए नया अनुभव नहीं है लेकिन इसी के साथ यहां धन का लालच देना या किसी की पहचान गुम कर देने का भी चलन रहा है।
तीसरा मुद्दा धार्मिक कट्टरवाद, धार्मिक वर्चस्ववादी दृष्टिकोण और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के बारे में था. उन्होंने स्पष्ट किया- “कुछ विचारधाराएं भारत के बाहर से आई हैं जो परंपरागत रूप से दूसरों के प्रति असहिष्णुता का भाव रखती हैं. उन्होंने इतिहास में कुछ समय इस देश पर शासन किया था, इसलिए वे फिर से शासन करने के हकदार महसूस करते हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि हमारा देश संविधान के अनुसार चलता है.
इतिहास में बार-बार हमारी पीठ में छुरा घोंपा गया
ऐतिहासिक आधार को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि- हमारी संस्कृति हमें सिखाती है कि हम आपको आपकी आस्था और विश्वास के साथ स्वीकार करते हैं. लेकिन बार-बार हमारी पीठ में छुरा घोंपा गया है. पिछली बार पीठ में छुरा तब घोंपा गया था जब औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह और उसके जैसे अन्य लोगों को मार डाला. इससे असहिष्णुता की लहर वापस आ गई. 1857 में यह लहर फिर उठी. अंग्रेजों ने देखा कि ये लोग आपस में लड़ते हैं लेकिन जब विदेशी अत्याचार की बात आती है, तो वे सभी एक हो जाते हैं. इसलिए उन्हें लड़ने देना बेहतर है और ‘फूट डालो और राज करो’ को उन्होंने सबसे अच्छा हथियार समझा. इसका नतीजा पाकिस्तान बना। समाधान के रूप में उन्होंने कहा, हम स्वतंत्र भारत में भारतीय के रूप में रहते हैं, हम एक हैं; फिर ये मतभेद, श्रेष्ठता और वर्चस्व की बात क्यों? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक कौन हैं? हम सभी समान हैं. इसलिए हमें असहिष्णुता को भूल जाना चाहिए और देश की सर्वसमावेशी संस्कृति के साथ एक हो जाना चाहिए.”
मोहन भागवत ने हिंदू एकता का किया आह्वान
उन्होंने अपने चौथी बात हिंदू एकता की कही. उन्होंने आह्वान किया, इस संस्कृति के रखवालों को याद रखना चाहिए कि डर सिर्फ इसलिए पैदा होता है क्योंकि हम असंगठित हैं. संगठित हो जाओ, सशक्त बनो. अपनी क्षमता इतनी बढ़ाओ कि जो लोग तुम्हें डराने की कोशिश करते हैं, वे भी तुम्हें दुश्मन के रूप में देखकर डरे. लेकिन दूसरों को मत डराओ. भारतीय बनो.
इस संदर्भ में उन्होंने रोज़ाना नए मुद्दे उठाकर सामाजिक कलह पैदा करने पर चेतावनी दी. उन्होंने कहा, रोज़ाना नए मुद्दे उठाना, यह सोचकर कि हम हिंदुओं के नेता बन सकते हैं या अतीत की आक्रांतता से घृणा, संदेह, दुश्मनी कैसे बढ़ाई जा सकती है? यह नहीं चल सकता. अंत में हमारा समाधान क्या है? अगर हम दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि हम एक-दूसरे के साथ सद्भाव से रह सकते हैं, तो हमें अनुकरण करने के लिए एक मॉडल स्थापित करना होगा.
हमारा राष्ट्र धर्म आधारित है
सरसंघचालक ने आगे कहा, अंग्रेजों ने हमारा राष्ट्र नहीं बनाया; यह सनातन है. यह हमेशा से रहा है. यह राजनीति पर आधारित नहीं है बल्कि धर्म, संस्कृति और सत्य पर आधारित है. हमारे राष्ट्र का आधार वह धर्म है जो ब्रह्मांड की रचना के समय से ही मौजूद है. हम सभी को इस ऐतिहासिक सत्य के बारे में स्पष्ट होना चाहिए. केवल एक महान दर्शन होना पर्याप्त नहीं है; हमारे कार्यों को इसके अनुरूप होना चाहिए.
उन्होंने जोर दिया, एक बात कहना और कुछ और करना कायरता का प्रतीक है. जाति भेदभाव के विचारों को निकाल देना चाहिए. यह केवल हमारे घरों में परिलक्षित होना चाहिए. पिछले 1000-1200 सालों में अनजाने में अज्ञानता की वजह से और कभी-कभी स्वार्थ के कारण हमने धर्म की आड़ में कई अधार्मिक कार्य किए हैं. हमें अपने जीवन से उस अधर्म को निकालना होगा.
ऋषियों के उपदेश का पालन करें
उन्होंने सर्वज्ञ को सर्वोच्च सम्मान देने की गौरवशाली हिंदू परंपरा की प्रशंसा करते हुए कहा, “ऋषियों ने जो उपदेश दिया है, विद्वान जो कहते हैं, उसका पालन करें; लेकिन ऋषियों ने जो दिखाया है, उस पर भी ध्यान दें क्योंकि केवल वे ही जानते हैं कि धर्म, संस्कृति के निर्माण के पीछे का सत्य क्या है. भारत में यह परंपरा हमेशा से चली आ रही है.”
विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के सरसंघचालक के रूप में डॉ. भागवत ने वैश्विक स्थिति का गहन विश्लेषण किया है. उन्होंने भारत के सभी वर्गों से आह्वान किया कि वे विश्व की चुनौतियों का समाधान करने वाला मॉडल बनाने में अपना योगदान दें. भारत फिर से आत्मविश्वास प्राप्त कर रहा है. वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान बना रहा है. ऐसे में हमारा आचरण कैसा होना चाहिए, हम विश्व के समक्ष ऐसा मॉडल कैसे प्रस्तुत करें, जिससे अन्य देश हमें मार्गदर्शक शक्ति के रूप में स्वीकार करें।
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