Major Somnath Sharma: पढ़ें पहला परमवीर चक्र पाने वाले मेजर सोमनाथ की कहानी, वो फौजी जिसका लेटर बना मिसाल।

Major Somnath Sharma: साल 1947 में भारत पाकिस्तान युद्ध में पाक को मुंह की खानी पड़ी पर हमारे कई शूरवीरों को सर्वोच्च बलिदान भी देना पड़ा. इन्हीं में से एक थे मेजर सोमनाथ शर्मा. पाकिस्तान के साथ लड़ाई में अद्वितीय वीरता दिखाते हुए 3 नवंबर को उन्होंने अपने प्राण की आहुति दे दी।

अंग्रेज भारत को दो हिस्सों में बांटकर गए ही थे और हम आजादी का जश्न भी नहीं मना पाए थे कि नए-नए बने पड़ोसी पाकिस्तान ने हमला कर दिया. साल 1947 में हुए इस युद्ध में पड़ोसी को मुंह की खानी पड़ी पर हमारे कई शूरवीरों को सर्वोच्च बलिदान भी देना पड़ा. इन्हीं में से एक थे मेजर सोमनाथ शर्मा. पाकिस्तान के साथ लड़ाई में अद्वितीय वीरता दिखाते हुए 3 नवंबर को उन्होंने अपने प्राण की आहुति दे दी. इसके लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया था।

जम्मू में 31 जनवरी 1923 को मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म हुआ था. इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा सेना में डॉक्टर थे. पिता की अलग-अलग स्थानों पर पोस्टिंग के चलते मेजर सोमनाथ शर्मा की पढ़ाई भी अलग-अलग स्थानों पर हुई. अंतत: उनका प्रवेश शेरवुड, नैनीताल में कराया गया. वह बचपन से खेलकूद में काफी रुचि रखते थे.

पिता और मामा से मिली फौज में जाने की प्रेरणा :

पिता के अलावा मेजर सोमनाथ के मामा भी फौज में थे. मामा लेफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में तैनात थे. उन्होंने साल 1942 में हुए युद्ध में अंग्रेजों की ओर से जापानियों से मोर्चा लिया था और इस लड़ाई में शहीद हो गए थे. पिता और मामा का मेजर सोमनाथ शर्मा पर भी प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपनी मर्जी से सेवा के लिए फौज को चुना।

नियुक्ति के साथ ही मैदान में भेज दिए गए

22 फरवरी 1942 को मेजर सोमनाथ शर्मा को चौथी कुमायूं रेजिमेंट में कमीशन मिला. तब दूसरे विश्व युद्ध का माहौल था. नई-नई तैनाती के बावजूद मेजर शर्मा को युद्ध के लिए मलाया के पास जंग के मैदान में भेज दिया गया और उन्होंने ऐसा पराक्रम दिखाया कि सेना में अपनी अलग पहचान बना ली.

पांच सौ सैनिकों से घिर गई मेजर शर्मा की टुकड़ी:

आजादी के बाद पाकिस्तान ने जब हमला किया तो मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट में चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कमांडर थे. तीन नवंबर 1947 को उनको अपनी टुकड़ी के साथ कश्मीर के बडगांव में मोर्चा संभालने का आदेश दिया गया. भोर में ही वह मोर्चे पर पहुंच गए और उत्तर की ओर अपनी टुकड़ी तैनात कर दी. दोपहर होते-होते दुश्मन के लगभग 500 सैनिकों ने मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को तीन ओर से घेर लिया और भारी गोलाबारी शुरू कर दी।

सैनिक घटते गए फिर भी मोर्चे से नहीं हटे

तीनों ओर से हो रही गोलाबारी में मेजर सोमनाथ शर्मा के सैनिक हताहत होते गए. फिर भी वह मुकाबले से पीछे नहीं हटे. अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए उनके साथ गोलियां चलाते हुए दुश्मन को आगे बढ़ने से रोके रखा. हवाई मदद पहुंची तो मेजर शर्मा ने खुद को दुश्मन की गोलाबारी के बीच झोंकते हुए कपड़े की पट्टियों की मदद से प्लेन को सटीक लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता की.

गोलियां भर-भर कर देते रहे और सैनिकों को ललकारते रहे

तब तक मेजर शर्मा के काफी सैनिक शहीद हो गए थे. संख्या बल कम हो चुका था. मेजर सोमनाथ के बायें हाथ पर चोट लगी थी. फिर भी वह मैगजीन में गोलियां भर-भर कर सैनिकों को देते जा रहे थे. साथ ही अपने सैनिकों को ललकार रहे थे, दुश्मन हमसे केवल 50 गज दूर है. हमारी गिनती बेहद कम है. हम भीषण गोलाबारी के सामने हैं. लेकिन मैं एक भी इंच पीछे नहीं हटूंगा. अपने आखिरी सैनिक और आखिरी गोली तक डटा रहूंगा. उनकी इस ललकार के थोड़ी ही देर बाद एक मोर्टार ठीक उस स्थान पर आकर गिरा, जहां मेजर शर्मा मौजूद थे. मोर्टार के धमाके में वह शहीद हो गए. सर्वोच्च बलिदान के लिए उनको मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया. वह यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय सिपाही थे।

मेजर सोमनाथ शर्मा का वह पत्र, जो बना मिसाल

मेजर सोमनाथ शर्मा का एक पत्र हमेशा से लोगों के लिए मिसाल रहा है. यह पत्र उन्होंने सेना में जाने के बाद अपने माता-पिता को लिखा था. इसमें उन्होंने लिखा था कि मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं. यहां मौत का क्षणिक डर तो है पर मैं गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचन याद करता हूं तो डर मिट जाता है. श्रीकृष्ण ने कहा था, आत्मा अमर है. फिर शरीर नष्ट भी हो गया तो क्या फर्क पड़ता है. उन्होंने अपने पिता को संबोधित करते हुए लिखा था, पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा पर अगर मैं मर भी गया तो यकीन दिलाता हूं कि एक बहादुर सिपाही की तरह मरूंगा. मरते समय मुझे प्राण जाने का कोई दुख नहीं होगा।

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